रामचरितमानस में गौरीपूजन के प्रसंग का विवेचन.....




रामचरितमानस में गौरीपूजन के प्रसंग का विवेचन.....

जनक सुता जगजननि जानकी।अतिसय प्रिय करुणानिधान की।।
ताके जुग पद कमल मनावउँ ।जासु कृपा निरमल मति पावउँ ।।
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक।चरन कमल बंदउँ सब लायक।।
राजिव नयन धरे धनु सायक।भगत बिपति भंजन सुखदायक।।
गिरा अरथ जल बीचि सम,कहियत भिन्न न भिन्न।
बंदउँ सीताराम पद ,जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न।।

बन्दना की इन पंक्तियों में दार्शनिक पक्ष है, भावनात्मक पक्ष है तथा चरित्र का पक्ष तो है ही।

इन सीताजी की बंदना की पंक्तियों में क्रमभंगता है। इनमें प्रारंभ में  उन्हें जनकजी की पुत्री कहा गया, इसके तुरन्त बाद कह दिया गया कि वे सारे  संसार की जननी हैं। इस क्रम में अटपटापन लगता है। क्योंकि संसार में जब किसी  स्त्री का परिचय दिया जाता है, तो पहले वह कन्या रूप में किसकी पुत्री है, फिर विवाह के बाद किसकी पत्नी है, और फिर पुत्र हो जाने के बाद किसकी माँ है, के रूप में परिचय दिया जाता है।
गोस्वामी जी ने पार्वतीजी का परिचय देने में इसी क्रम का निर्वाह किया। उन्होंने कहा-

 “जय जय गिरिवर राज किसोरी”।
 आप महाराज हिमांचल की पुत्री हैं।फिर कहा-
 “जय महेस मुख चंद चकोरी”।1/234/5

 आप भगवान शंकर के मुख चंद्र की चकोरी हैं।और अगला वाक्य है- “जय गजबदन षडानन माता”

 आप गणेश और स्वामी कार्तिक की माता हैं। तो यह क्रमानुसार सही प्रतीत होता है।
सीताजी की वंदना में कहा कि आप जनक जी की पुत्री हैं, संसार की जननी हैं और करुणानिधान की अतिशय प्रिया हैं। इस क्रम विपर्यय के मूल में, आइए! गोस्वामी जी की दार्शनिक पृष्टभूमि का अवलोकन करें-- सीताजी राजर्षि जनकजी की पुत्री है, इसकी पृष्टभूमि में जो कथा है, आप जानते हैं- महाराज मनु, अपनी पत्नी पतिब्रता शतरूपा के साथ, गृहस्थ धर्म में सम्पूर्ण कर्तव्य कर्म का पालन कर रहे थे। प्रजा सुखी थी। पुत्रादि धर्मरत थे।

आदर्श समाज की स्थापना हेतु उन्होंने ‘मनुस्मृति’जैसे महान हिन्दू विधि-ग्रंथ की  रचना भी की। अंत में जीवन के चरम लक्ष्य, अर्थात्  भगवद्दर्शन की उत्कंठा के  फलस्वरूप वे पुत्र को राज्य देकर पत्नी शतरूपा के साथ नैमिषारण्य जाते हैं। वहाँ गोमती में स्नान के बाद, मुनियों के आश्रमों में कथा श्रवण के बाद  द्वादशाक्षर मंत्र (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का जप करते हुये कठिन तपस्या करते हैं। पहले कंद मूल फल, फिर केवल जल ग्रहण करते हैं, फिर जल का भी  परित्याग कर देते हैं।

इस प्रचंड तप के अंतराल में  ब्रह्मा,विष्णु,महेश आते हैं, उनसे बरदान माँगने के लिए कहते हैं, किन्तु मनु  इनकार कर देते हैं। अंत में ब्रह्मबाणी होती है, उसमें एक स्वर सुनाई पड़ता  है कि,”राजन! तुम क्या चाहते हो? उसे सुनकर मनुजी कहते हैं, कि मैं उस स्वरूप  का दर्शन करना चाहता हूँ, जिसका वर्णन निर्गुण निराकार के रूप में भी किया  गया है, तथा सगुण साकार के रूप में भी किया गया है। भगवान शंकर जिस रूप का चिंतन करते हैं, भुसुंडिजी जिनके भक्त हैं और जो मुनियों के द्वारा बंद्य  हैं।

उनकी प्रार्थना पर उनके समक्ष दो रूप प्रगट हुए-भगवान राम तथा उनके बाम भाग में जगज्जननी श्री सीता।

मनु, जिन्होंने भगवान को पुत्र रूप में माँगा था,वे श्री सीताजी की ओर  जिज्ञासा की दृष्टि से देख रहे थे। तब भगवान राम ने श्री सीताजी का परिचय देते हुए कहा, कि ये जो मेरे बाम भाग में दिखाई दे रही हैं, वे आदिशक्ति हैं। इनके द्वारा ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। जब मैं अवतार लूँगा तो मेरे साथ यह भी आवेंगी। यह कर दोनों अन्तर्ध्यान हो जाते हैं।

श्री जनक जी के यहाँ प्राकट्य होने के कारण हम श्रीसीताजी को जनकसुता कहने के अभ्यस्त हैं। किन्तु भगवान ने जो परिचय दिया वह सर्वथा भिन्न है। इस समय वे जनकजी की पुत्री नहीं हैं। भगवान ने कहा वे आदिशक्ति, मेरी महामाया हैं, जो सृष्टि का सृजन करती हैं।

इसमें विनोद भी है और तत्व ज्ञान भी है। 
मनु के प्रश्न-”चाहहुँ तुम्हहि  समान सुत” के उत्तर में भगवान ने भी मीठा जबाब दिया,”आपु सरिस ढूँढ़हुँ कहँ  जाई। नृप तव तनय होब मैं जाई।”मनु के मन में श्रीसीताजी के आने की कल्पना भी  नहीं थी।

अतः सीताजी भी आयेंगी, ऐसा कहने के पीछे प्रभु का विनोद यह  है कि, मेरे आपके पुत्र बन जाने के कुछ वर्ष ब्यतीत होने के बाद आपको मेरे  विवाह की चिन्ता होगी, और आप अपने पुत्र के अनुरूप ही पुत्र वधू ढूँढ़ने के  लिए परिश्रम करेंगे, तो उस कठिन काम की ब्यवस्था हम पहले ही करके आ रहे  हैं। साथ में वधू को भी ला रहे हैं। अब जरा दार्शनिक दृष्टि से इस पर विचार  करें- मनु मानव जाति के आदि पुरुष हैं। कहा जाता है कि, सृष्टि का निर्माण इन्हीं के द्वारा हुआ है।

रामायण की मान्यता भी यही है-

 “स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। 
जिन्ह ते भै नर सृष्टि अनूपा।”

 हम सब लोग मनुष्य या मानव हैं। पुराण कहते हैं कि यह संबोधन हमें इसलिए प्राप्त हुआ, क्योंकि इस महान सृष्टि का निर्माण मनुजी के द्वारा हुआ, और  इसलिए उनकी पूजा आदि पुरुष के रूप में संसार ने की। परन्तु मनु के अंतःकरण में  ईश्वर दर्शन की इच्छा उत्पन्न हुयी, इसका तात्पर्य क्या है?-

 स़ंसार में प्रत्येक व्यक्ति की उत्पत्ति माता पिता के माध्यम से होती है।
अब पुत्र के योग्य एवं विशेषताओं से युक्त होने के बाद भी पिता का यह दावा  कि, ”मैंने अपने पुरुषार्थ से इतना श्रेष्ट पुत्र उत्पन्न किया है” मात्र  अज्ञान ही कहा जायेगा, उचित नहीं, क्योंकि बहुधा लायक पुत्र के साथ नालायक  पुत्र भी उत्पन्न हो जाते हैं। उस समय क्या माता पिता ऐसा कह सकते हैं कि हमने ही उसे ऐसा उत्पन्न किया है।

गोस्वामीजी ने भगवान शंकर के  विवाह के समय एक मधुर दार्शनिक पक्ष प्रस्तुत किया। मुनियों ने भगवान शिव  से कहा कि आप गणेशजी का पूजन कीजिए। यह अनोखी बात है।

क्योंकि गणेशजी  माता पार्वती व पिता भगवान शिव के पुत्र हैं। अभी तो दोनों का विवाह होने जा रहा है। किन्तु भगवान शिव व भगवती पार्वती ने बड़ी प्रसन्नता से गणेशजी का  पूजन किया--

 “मुनि अनुसासन गनपतिहि,पूजेउ संभु भवानि।
 कोउ सुनि संसय करै जनि,सुर अनादि जिय जानि।।”1/100

 यह सुनकर संशय नहीं करना चाहिए,क्योंकि देवता अनादि हैं।
इस ‘आदि अनादि’ को ठीक से समझना होगा। हमें व्यवहार में कहीं न कहीं से  ‘आदि’ को स्वीकार करना होगा। किन्तु इस ‘आदि’ की स्वीकृति को कोई परमार्थ-सत्य  मानने की भूल कर दे, तो अनेक समस्यायें जीवन में आ सकती हैं। वस्तुतः विचार के द्वारा ‘आदि’ की प्रतीति के मूल में ‘अनादि तत्व’ का साक्षात्कार हमें करना ही चाहिए।

भगवान शंकर और गणेशजी की प्रकृति का जो भेद है, वह  महत्वपूर्ण है। पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार शिव-पार्वती विवाह के  बाद, पार्वती के स्नान के समय उबटन की दिब्य मूर्ति से गणेशजी का  प्रादुर्भाव हुआ। उस तेजोमय मूर्ति के प्रणाम करने के बाद उसे माँ द्वारा  द्वार-रक्षा का आदेश मिला ।

उसी के कठोर अनुपालन में सजग गणेशजी द्वारा भगवान शिव को, उनके परिचय देने के बाद भी रोक दिया गया। दोनो लोगों में भयानक युद्ध के बाद, शंकरजी ने बालक का सिर त्रिशूल से काट दिया। पार्वतीजी ने बाहर आकर देखा तो व्याकुल होकर महाकाली रूप धरकर प्रलय  के लिए उद्यत हो गयीं, तो सारे देवी देवताओं ने उनकी आराधना की, और शिव ने हाथी का सिर लगाकर उन्हें जीवित कर दिया। इस प्रकार अब जिन गणेशजी की हम  पूजा करते हैं, उनका निर्माण पार्वती और
 शंकर दोनों के द्वारा हुआ है।

अब देखिए, पुत्र के रूप में गणेशजी प्रारंभ में ही लड़ पड़े, दूसरी ओर जब  शंकरजी से विवाह के समय गणेशजी का पूजन करने के लिए कहा गया, तो उन्होंने, बिना किसी आपत्ति के प्रसन्नता पूर्वक पूजन किया।

इसका सांकेतिक अभिप्राय यह है कि,गणेशजी को बुद्धि का देवता मानते हैं-

 “सिद्धि सदन गज बदन विनायक।वि.प.।
 और शंकरजी एक मूर्तिमान विश्वास हैं-
 “भवानी शंकरौ बन्दे,श्रद्धा विश्वास रूपिणौ”।

 बुद्धि सरलता से किसी बात को स्वीकार नहीं करती। बुद्धिमान व्यक्तियों का  स्वभाव भी ऐसा ही होता है। वे सामान्यतः,”क्यों मान लें, कैसे मान लें” कहते  देखे जाते हैं।

भगवान शंकर ने गणेश का सिर काटकर नया सिर दिया। इसका  कारण यह है कि, बुद्धि के साथ एक समस्या है। उसका समाधान देने के  लिये,गोस्वामीजी ने श्रीसीताजी के चरण कमलों की वन्दना करते हुए , उनकी विशेषता का वर्णन करते हुए कहा-- “जासु कृपा निरमल मति पावउँ “।

 अर्थात जब माँ सीता प्रसन्न होती हैं तो निर्मल मति देती हैं। व्यावहारिक जीवन में भले बुद्धि सर्वोत्कष्ट हो, लेकिन मानस कहता है कि बुद्धि की समस्यायें कम नहीं हैं। शरीर की रचना पर दृष्टि डालें तो देखेंगे कि सिर सबसे ऊपर है।सिर बुद्धि का केन्द्र है।

अतः बुद्धि के साथ सबसे ऊपर  होने का अभिमान समाहित है। यदि किसी से कहा जाय कि अमुक व्यक्ति उससे ज्यादा  धनवान है और अमुक व्यक्ति उससे ज्यादा बलवान है, तो वह मान लेगा, किन्तु यदि  यह कहा जाय कि अमुक व्यक्ति तुमसे ज्यादा बुद्धिमान है, तो इसे वह बिल्कुल  नहीं मानेगा। इसलिए मानस का मत है कि बुद्धि में शोधन की आवश्यकता है। मति के  साथ एक अक्षर और जुड़ना चाहिए,’सुमति’।

गोस्वामी जी ने मानस की रचना प्रारंभ करते समय लिखा कि मैं बुद्धिहीन हूँ, कविता करना नहीं जानता, काव्य के गुणों को भी नहीं जानता-

 “कवि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ “।1/11/9

 लोगों ने कहा,फिर इतनी बड़ी रचना कैसे कर रहे हैं? तो जबाब दिया-

 “संभु प्रसाद सुमति हिय हुलसी।
राम चरित मानस कवि तुलसी।"

 यानी आज मति ‘सुमति’ बन गयी है। मति के साथ ‘सु’व’कु’ उपसर्ग जोड़ कर ‘सुमति’और ‘कुमति’ के रूप में बुद्धि की व्याख्या की जाती है।
मानस में इसका अंतर बिवेचित
 किया गया- “केहि न सुसंग बड़प्पन पावा’।

 ‘सुसंग’अर्थात स़ंतों का संग। सुसंग से ही मति सुमति बनती है।
 इसी तरह कहा गया कि- “को न कुसंगति पाइ नसाई।”
 यानी कुसंग से जुड़कर मति कुमति हो गयी।

गोस्वामीजी कहते हैं कि भगवान शंकर ईश्वर हैं और महानतम संत भी हैं। उनकी  कृपा से मति सुमति बनी। परन्तु सुमति के बाद भी बुद्धि के अंतरंग शोधन की  आवश्यकता है। कहते हैं कि-

“जनक सुता जग जननि जानकी।
अतिसय प्रिय करुणानिधान की।
ताके जुग पद कमल मनावउँ ।
जासु कृपा निरमल मति पावउँ ।”

मति, सुमति और फिर निर्मल मति, यही क्रम है। मति जब तक केवल मति होगी, उसमें चाहे जितनी विशेषतायें हों, परन्तु अभिमान का दोष रहेगा, भ्रान्ति का दोष रहेगा ही, यह स्वाभाविक है। क्योंकि बुद्धि को सर्वश्रेष्ट मानने वाला, उसमें आने, जाने वाली भ्रान्ति को भी सत्य मान लेगा--

 “जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ, भ्रम न सकइ कोइ टारि।”1/117

बुद्धिमान व्यक्ति में कर्तृत्वाभिमान का उदय होता है। इसलिए आवश्यकता इस  बात की है कि, बुद्धि के द्वारा निर्माण हो,पर कर्तापन का अभिमान न हो। क्योंकि अभिमान होने पर सर्वनाश हो जायेगा।

गीता का सिद्धान्त भी यही  है--

 “प्रकृत्यैव क्रियमाणानि, गुण कर्माणि सर्वशः।
 अहंकारी बिमूढ़ात्मा, कर्ताहम् इति मन्यते।।”