धर्म: मम: - 155
भगवान के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का विवाह और कंस के द्वारा देवकी के छः पुत्रों की हत्या .....................
राजा परीक्षित ने पूछा - भगवन! आपने चन्द्रवंश और सूर्यवंश के विस्तार तथा दोनों वंशों के राजाओं का अत्यंत अद्भुत चरित्र वर्णन किया है। भगवान के परम प्रेमी मुनिवर! आपने स्वभाव से ही धर्मप्रेमी यदुवंश का भी विशद वर्णन किया।
अब कृपा करके उसी वंश में अपने अंश श्री बलराम जी के साथ अवतीर्ण हुए भगवान श्रीकृष्ण का परम पवित्र चरित्र भी हमें सुनाइये। भगवान श्रीकृष्ण समस्त प्राणियों के जीवनदाता एवं सर्वात्मा हैं। उन्होंने यदुवंश में अवतार लेकर जो-जो लीलायें कीं, उनका विस्तार से हम लोगों को श्रवण कराइये। जिनकी तृष्णा की प्यास सर्वदा के लिए बुझ चुकी हैं, वे जीवन मुक्त महापुरुष जिसका पूर्ण प्रेम से अतृप्त रहकर गान किया करते हैं, मुमुक्षुजनों के लिए जो भवरोग की रामबाण औषध है तथा विषयी लोगों के लिए भी उनके कान और मन को परम आह्लाद देने वाला है, भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के ऐसे सुन्दर, सुखद, रसीले, गुणानुवाद से पशुघाती अथवा आत्मघाती मनुष्य के अतिरिक्त और ऐसा कौन है जो विमुख हो जाय, उससे प्रीति न करे ? (श्रीकृष्ण तो मेरे कुलदेव ही हैं।)
जब कुरुक्षेत्र में महाभारत-युद्ध हो रहा था और देवताओं को भी जीत लेने वाले भीष्म पितामह आदि अतिरथियों से मेरे दादा पाण्डवों का युद्ध हो रहा था, उस समय कौरवों की सेना उनके लिए अपार समुद्र के सामान थी - जिसमें भीष्म आदि वीर बड़े-बड़े मच्छों को भी निगल जाने वाले तिमिंगिल मच्छों की भाँति भय उत्पन्न कर रहे थे। परन्तु मेरे स्वनामधन्य पितामह भगवान श्रीकृष्ण के चरण कमलों की नौका का आश्रय लेकर उस समुद्र को अनायास ही पार कर गए - ठीक वैसे ही जैसे कोई मार्ग में चलता हुआ स्वभाव से ही बछड़े के खुर का गड्ढा पार कर जाय। महाराज! मेरा यह शरीर - जो आपके सामने है तथा जो कौरव और पाण्डव दोनों ही वंशों का एकमात्र सहारा था, अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से जल चुका था। उस समय मेरी माता जब भगवान की शरण में गयीं, तब उन्होंने हाथ में चक्र लेकर मेरी माता के गर्भ में प्रवेश किया और मेरी रक्षा की।
वे समस्त शरीरधारियों के भीतर आत्मारूप से रहकर अमृत्व का दान कर रहे हैं और बाहर काल रूप से रह कर मृत्यु का। मनुष्य के रूप में प्रतीत होना, यह तो उनकी एक लीला है। आप उन्हीं के ऐश्वर्य और माधुर्य से परिपूर्ण लीलाओं का वर्णन कीजिये। भगवन! आपने अभी बतलाया था कि बलराम जी रोहिणी के पुत्र थे। इसके बाद देवकी के पुत्रों में भी आपने उनकी गणना की।
दूसरा शरीर धारण किये बिना दो माताओं का पुत्र होना कैसे सम्भव है? असुरों को मुक्ति देने वाले और भक्तों को प्रेम वितरण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण अपने वात्सल्य-स्नेह से भरे हुए पिता का घर छोड़कर ब्रज में क्यों चले गये? यदुवंश शिरोमणि भक्त वत्सल प्रभु ने नन्द आदि गोप-बंधुओं के साथ कहाँ-कहाँ निवास किया? ब्रह्मा और शंकर का भी शासन करने वाले प्रभु ने ब्रज में तथा मधुपुरी में रहकर कौन-कौन सी लीलाएँ कीं? और महाराज! उन्होंने अपनी माँ के भाई मामा कंस को अपने हाथों क्यों मार डाला? वह मामा होने के कारण उनके द्वारा मारे जाने योग्य तो नहीं था।
भगवान का गर्भ-प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ-स्तुति..............
श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! कंस एक तो स्वयं ही बड़ा बली था और दूसरे मगध नरेश जरासन्ध की उसे बहुत बड़ी सहायता प्राप्त थी। तीसरे उसके साथ थे - प्रलम्बासुर, बकासुर, चाणूर, तृणावर्त, अघासुर, मुष्टिक, अरिष्टासुर, द्विविद, पूतना, केशी, धेनुक, बाणासुर और भौमासुर आदि बहुत से दैत्य राजा उसके सहायक थे। उनको साथ लेकर वह यदुवंशियों को नष्ट करने लगा।
वे लोग भयभीत होकर कुरु, पंचाल, केकय, शाल्व, विदर्भ, ,निषध, विदेह और कोसल आदि देशों में जा बसे। कुछ लोग ऊपर-ऊपर से उसके मन के अनुसार काम करते हुए उसकी सेवा में लगे रहे। जब कंस ने एक-एक करके देवकी के छः बालक मार डाले, तब देवकी के सातवें गर्भ में भगवान के अंशस्वरूप श्रीशेष जी, जिन्हें अनंत कहते हैं, पधारे। आनन्दस्वरूप शेष जी के गर्भ में आने के कारण देवकी को स्वाभाविक ही हर्ष हुआ। परन्तु कंस शायद इसे भी मार डाले, इस भय से उनका शोक भी बढ़ गया ।
विश्वात्मा भगवान ने देखा कि मुझे ही अपना स्वामी और सर्वस्व मानने वाले यदुवंशी कंस के द्वारा बहुत ही सताये जा रहे हैं। तब उन्होंने अपनी योगमाया को यह आदेश दिया - 'देवि ! कल्याणी ! तुम ब्रज में जाओ ! वह प्रदेश ग्वालों और गौओं से सुशोभित है। वहाँ नन्दबाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी निवास करती है। उसकी और भी पत्नियाँ कंस से डरकर गुप्त स्थानों में रह रहीं हैं। इस समय मेरा वह अंश जिसे शेष कहते हैं, देवकी के उदर में गर्भ रूप से स्थित है। उसे वहाँ से निकालकर तुम रोहिणी के पेट में रख दो, कल्याणी! अब मैं अपने समस्त ज्ञान, बल आदि अंशों के साथ देवकी का पुत्र बनूँगा और तुम नन्दबाबा की पत्नी यशोदा के गर्भ से जन्म लेना। तुम लोगों को मुँह माँगे वरदान देने में समर्थ होओगी।
मनुष्य तुम्हें अपनी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली जानकर धूप-दीप, नैवेद्य एवं अन्य प्रकार की सामग्रियों से तुम्हारी पूजा करेंगे। पृथ्वी में लोग तुम्हारे लिए बहुत से स्थान बनायेंगे और दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्या, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा और अम्बिका आदि बहुत से नामों से पुकारेंगे। देवकी के गर्भ से खींचे जाने के कारण शेष जी को लोग संसार में ‘संकर्षण’ कहेंगे, लोकरंजन करने के कारण ‘राम’ कहेंगे और बलवानों में श्रेष्ठ होने कारण ‘बलभद्र’ भी कहेंगे।'
जब भगवान ने इस प्रकार आदेश दिया, तब योगमाया ने ‘जो आज्ञा’, ऐसा कहकर उनकी बात शिरोधार्य की और उनकी परिक्रमा करके वे पृथ्वी-लोक में चली आयीं तथा भगवान ने जैसा कहा था वैसे ही किया। जब योगमाया ने देवकी का गर्भ ले जाकर रोहिणी के उदर में रख दिया, तब पुरवासी बड़े दुःख के साथ आपस में कहने लगे - 'हाय ! बेचारी देवकी का यह गर्भ तो नष्ट ही हो गया।'
भगवान भक्तों को अभय करने वाले हैं। वे सर्वत्र सब रूप में हैं, उन्हें कहीं आना-जाना नहीं है। इसलिए वे वसुदेव जी के मन में अपनी समस्त कलाओं के साथ प्रकट हो गये।